हिंदी शब्द की उत्पत्ति , वर्गीकरण तथा अन्य प्राचीन नामों सहित वर्णन
नमस्ते | क्या आपने कभी सोचा है की हिंदी भाषा के शब्दों की उत्पत्ति कैसे हुई ? हिंदी शब्द का वर्गीकरण क्या है ? इसके आलावा इसे और किस नाम से जाना जाता है ? आज के इस ब्लॉग पोस्ट में हम उन सभी प्रश्नों का उत्तर और हिंदी शब्द की उत्पत्ति , हिंदी का वर्गीकरण के साथ साथ अवहट्ट, अपभ्रंश व प्राचीन हिंदी, प्राचीन आर्यभाषा , हिंदी का अर्थ व इसके अन्य नामों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे |
हिंदी शब्द की उत्पत्ति
हिंदी शब्द की उत्पत्ति भारत के उत्तर पश्चिम में प्रवाहमान सिंधु नदी से संबंधित है। भारत में आने वाले विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए वह सिंधु का देश था। ईरान के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही संबंध थे और ईरानी सिंधु को हिंदू ( स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन - पहलवी भाषा प्रवृति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन ) हिंदू से हिंद बना और फिर हिंद से फारसी भाषा के संबंध कारक प्रत्यय ई लगने से हिंदी बन गया । हिंदी का अर्थ है हिंद का। आगे चलकर यह वक्त शब्द हिंदी की भाषा के अर्थ में प्रयोग होने लगा।
हिंदी शब्द के दो अर्थ हैं- 'हिंद देश के निवासी' और 'हिंद की भाषा' ।
वर्गीकरण
हिंदी विश्व की लगभग 3000 भाषाओं में से एक है।
आकृति या रूप के आधार पर हिंदी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
भाषा परिवार के आधार पर हिंदी भारोपीय ( Indo-European) परिवार की भाषा है।
भारत में बोलने वालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा परिवार है। उसके बाद द्रविड़, आस्ट्रिक, चीनी-तिब्बती है इस तरह चार भाषा परिवार मिलते हैं ।
हिंदी भारोपीय शाखा के भारतीय आर्य उपशाखा की एक भाषा है।
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हिंदी शब्द की उत्पत्ति |
भारतीय आर्य भाषा को तीन कालों में विभक्त किया जाता है
1 प्राचीन भारतीय आर्यभाषा
उदाहरण- वैदिक संस्कृत/ छांदस ( यास्क, पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम ) 1500 ई. पू. - 1000 ई.पू. तक व लौकिक संस्कृत/संस्कृत/भाषा (पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम ) 1000 ई. पू. - 500 ई. पू. तक।
2 मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा
उदाहरण- पाली ( प्रथम प्राकृत काल) 500 ई.पू. से 1ई. तक। भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पाली में ही है।
प्राकृत (द्वितीय प्रकृत काल ) 1ई. से 500 ई. तक। भगवान महावीर के सारे उद्देश्य प्रकृत में ही है।
अपभ्रंश/अवहट्ट 500-1000ई./900-1100ई.( तृतीय प्रकृत काल ) संक्रमण कालीन /संक्रांति कालीन भाषा ।
3 आधुनिक भारतीय आर्यभाषा
उदाहरण- हिंदी, बांग्ला, उड़िया, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि।
मध्यकालीन हिंदी 1400 ई . से 1850 ई.
आधुनिक हिंदी 1850 ई. से अब तक।
प्राचीन हिंदी 1100 ई.-1400 ई.
हिंदी की आदि जननी संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश,अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/ प्रारंभिक हिंदी का रूप लेती है। सामान्यत हिंदी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता है।
हिंदी का विकास क्रम
संस्कृत> पाली> प्रकृत > अपभ्रंश > अवहट्ट > प्राचीन /प्रारंभिक हिंदी
अपभ्रंश
अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई. से लेकर 1000 ई. के मध्य हुआ है। इसमें साहित्य का आरंभ आठवीं सदी ( स्वयंभू कवि ) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा। अपभ्रंश शब्द का अर्थ है- पतन । किंतु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है- प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य। अपभ्रंश का वाल्मीकि 'स्वयंभू' है जिसने पउम चरिउ राम काव्य की रचना की । धनपाल ने भविष्यत कहा अपभ्रंश का पहला प्रबंध काव्य की रचना तथा पुष्पदंत ने जसहर चरिउ महापुराण की रचना की।
अवहट्ट
इसे अपभ्रंश का अपभ्रंश या परवर्ती अपभ्रंश कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांति कालीन भाषा है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है। इस काल के प्रमुख रचनाकार, अब्दुल रहमान ( संदेश रासक), दामोदर पंडित ( उक्ति व्यक्ति प्रकरण), ठाकुर विद्यापति ( कीर्तिकला), ने अपनी भाषा को अवहट्ट कहा है। विद्यापति ने- देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है, इसे अवहट्ट कहा है।
प्राचीन या प्रारंभिक हिंदी
प्राचीन हिंदी से अभिप्राय है अपभ्रंश अवहट्ट के बाद की भाषा । मध्यदेशीय भाषा परंपरा की विशिष्ट उत्तराधिकारी होने के कारण हिंदी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरि है। हिंदी का आदिकाल हिंदी भाषा का शिशु काल है। यह वह काल था जब अपभ्रंश अवहट्ट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था और हिंदी भाषा की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
मध्यकालीन हिंदी 1400 ई.-1850 ई.
मध्यकाल में हिंदी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियां विकसित हो गई। इस काल में भाषा के तीन रूप आए ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली।
ब्रजभाषा-
हिंदी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परंपरा के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी। जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिंदी के कृष्ण भक्त कवियों को है । जिसमें सूरदास (सूरसागर), नंददास, निंबार्क संप्रदाय की श्री भट्ट, रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमे में सर्व प्रमुख स्थान सूरदास का है जिन्हें अष्टछाप का जहाज कहा जाता है। साथ ही रीति बद्ध कवियों में केशवदास, सेनापति, मतीराम, चिंतामणि आदि तथा रीति मुक्त कवियों में आलम, ठाकुर, घनानंद आदि प्रमुख है।
अवधी-
अवधी भाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफी /प्रेम मार्गी कवियों का है। जिसमे सर्व प्रमुख दो कवि जायसी व तुलसीदास ( राम चरित मानस ) है।
खड़ी बोली-
खड़ी बोली का मध्यकाल में मुख्य केंद्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए- उत्तरी हिंदी व दक्कनी हिंदी । खड़ी बोली का मध्यकालीन रूप कबीर, नानक, रहीम ( मदनाष्टकम ), आलम ( सुदामा चरित्र ) जटमल ( गोरा बादल की कथा ) तथा ढक्कन कवियों में संत प्राणनाथ आदि हैं।
आधुनिक कालीन हिंदी 1850 ई .से अब तक
19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेजी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिंदी पर भी पड़ा। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों में खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जिससे ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते आते खड़ी बोली गद्य पद्य दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई। जिससे खड़ी बोली साहित्य की सर्व प्रमुख भाषा बन गई।
भारतेंदु पूर्व-युग- खड़ी बोली गद्य की आरंभिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर की दो रचनाकारों _सदा सुख लाल व इंशा अल्लाह खान तथा फोर्ट विलियम कॉलेज कोलकाता के दो भाषा मुंशियों _ लल्लू लाल जी व सदल मिश्रा के नाम उल्लेखनीय है। आचार्य शुक्ल के अनुसार आधुनिक हिंदी का पूरा-पूरा आभास मुंशी सदासुख और सदल मिश्रा की भाषा में ही मिलता है इसमें से सदा सुख की साधु भाषा अधिक महत्व की है तथा मुंशी सदासूख ने लेखनी भी चारों से पहले उठाई तथा गद्य का प्रवर्तन करने वालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए। भारतेंदु पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिंदी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों राजा शिवप्रसाद (सितारे हिंद) ने हिंदी का गंवारापन दूर किया व राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का समर्थन किया।
भारतेंदु युग- इस युग में हिंदी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विभिन्न विधाओं का ऐतिहासिक कार्य हुआ। हिंदी सही मायने में भारतेंदु के काल में नई रूप में आई और उनके समय में ही हिंदी के गद्य की बहूमुखी रूप का सूत्रपात हुआ । उन्होंने अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया जिसे भारतेंदु मंडल कहा गया। खड़ी बोली काव्य रचना के पक्ष में आंदोलन चलाने वाले अयोध्या प्रसाद खत्री पहले पुरुष थे। भारतेंदु युग में गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाया गया।
द्विवेदी युग - खड़ी बोली और हिंदी साहित्य के सौभाग्य से 1930 ईस्वी में आचार्य महावीर प्रसाद ने हिंदी के परिष्कार का जिम्मा लिया। वे लेखकों की वर्तनी अथवा व्याकरण संबंधित त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। गद्य तो भारतेंदु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था अब पद्य की रचना भी खड़ी बोली में होने लगी। अब खड़ी बोली जिसके साथ बोली शब्द लगा है भाषा बन गई और इसका सही नाम हिंदी हो गया। वह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई । द्विवेदी युग में साहित्य रचना के विविध विधाएं विकसित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्रा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के योगदान का विशेष महत्व है।
छायावाद युग- महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, पंत और रामकुमार वर्मा इनका साहित्यिक खड़ी बोली हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी रचनाओं को देखते हुए कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम है हिंदी में अनेक भाषाएं, गुणों का समावेश हुआ, अभीव्यंजना की विविधता, रचनात्मक, लचीला छायावाद युग की भाषा की विशेषताएं हैं । हिंदी काव्य में छायावाद युग के बाद, प्रगतिवाद युग, प्रयोगवाद युग आदि आए। इस दौर में खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में विकास होता गया। पद्य के ही नहीं गद्य के संदर्भ में भी छायावादी युग, खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो भाषा शैलिया स्थापित की, उसे अनुसरण आज भी किया जा रहा है।
हिंदी के विभिन्न अर्थ
भाषा शास्त्रीय अर्थ- नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली है।
संवैधानिक/ कानूनी अर्थ- संविधान के अनुसार हिंदी भाषा संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है ।
सामान्य अर्थ- समस्त हिंदी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा है।
व्यापक अर्थ- आधुनिक युग में हिंदी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता, हिंदी की सभी उपभाषाएं और बोलियां हिंदी के व्यापक अर्थ में आ जाती है।
हिंदी के विभिन्न नाम या रूप
हिंदवी/हिंदुई/देहलवी - मध्यकाल में मध्यदेश के हिंदुओं की भाषा जिसमें अरबी फारसी शब्दों का अभाव है।
भाषा/भाखा- विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशव आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिंदी के लिए किया है ।
रेख्ता- मध्यकाल में मुसलमानो में प्रचलित अरबी फ़ारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा । जैसे अमीर ग़ालिब की रचनाएं।
दक्खिनी/दक्किनी- मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानो द्वारा फारसी लिपि में लिखी जाने वाली भाषा। हिंदी में गद्य रचना परंपरा की शुरुआत करने का श्रेय दक्किनी हिंदी के रचनाकारों को ही है ।
खड़ी बोली - खड़ी बोली की तीन शैलियां-
1. हिंदी/शुद्ध हिंदी/उच्च हिंदी/नागरी हिंदी/आर्य भाषा- नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली जैसे जयशंकर प्रसाद की रचनाएं ।
2. उर्दू/जबाने उर्दू- फारसी लिपि में लिखित अरबी फ़ारसी बहुल खड़ी बोली जैसे मठों की रचनाएं ।
3. हिंदुस्तानी - हिंदी उर्दू का मिश्रित रूप व आम जन द्वारा प्रयुक्त जैसे प्रेमचंद की रचनाएं।
निष्कर्ष
इस ब्लॉग पोस्ट में हमने हिंदी शब्द की उत्पत्ति, हिंदी का वर्गीकरण और इसके अन्य नामों के बारे में चर्चा की है | हमने देखा कि हिंदी शब्द की उत्पत्ति में विभिन्न भाषाओं, बोलियों का प्रभाव है | इसके अलावा, हिंदी को प्राचीन हिंदी, ब्रज भाषा , खड़ी बोली, आर्य भाषा, हिन्दुस्तानी भी कहा जाता है | इन सभी नामों की पहचान को समझना महत्वपूर्ण है जब हम हिंदी भाषा और उसके शब्दों के विषय में विस्सेतार से समझने का प्रयास करते है |
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